द लास्ट ट्रेन

य़ात्रा-ए-गोरखपुर: 3 तारीख को पूर्वांन्चल में शादियां जम के होंगी. फलाने भाई की शादी में जाने का आँखिरी मौका है. टिकट तो तीन महीने से हाउसफुल चल रहा है. कल्याण स्टेशन पर ट्रेन 2-3 मिनट रूकने वाली है. ज़िनका टिकट कन्फर्म है उनके तेवर अलग होते है लेकिन जिसने मां से घर आने को लेकर तीन महीने में चार बार झूठ बोला है उसके लिए तो ये करो य़ा मरो की स्थिति है. ज़िनका टिकट कन्फर्म नहीं हुआ उनकी समस्या अभी शुरू भी नही हुई है. भाई को पता ही नही है की उनके लिए बना चालू डब्बा आगे आयेगा य़ा पीछे. उन्ही तीन मिनटों में उसे प्लेटफार्म के एक छोर से दुसरे छोर तक दौड़ के जाना हैं सामान साथ लिए हुए. उधर पुलिसवाला कसाई की तरह हाथ में डन्डा लिए हूए उन्हे  गालियां बक रहा है, ऐसे में कोई पुलिस वाला बिना गाली दिए संभल के दौड़ने को कह दें तो उसमें मां की सुरत नजर आने लगती है लेकिन इमोशनल होने का समय है ही नहीं क्योंकी अगर लेट हो गए तो कही कोई दरवाजा न बंद कर दे, इसलिये मिल्खा सिंह बने रहना है. लेट होने का नुक्सान ये भी है की अगर जगह मिली भी तो इज्जतघर के पास मिलेगी जहां अगले 36 घंटे बेईज्जत होना है. ट्रेन चालू होता है तो लगता है की ओलम्पिक की दौड़ सफल हुई लेकिन जैसे ही लोगों को एक और दो नम्बर लगने शुरू होते है तो जमीन पर होने का मतलब पता चलता है. ट्रेन जब मध्य प्रदेश क्रास करती हैं तो मैहर देवी का प्रसाद ट्रेन में ही मिल जाता है. हलाकी वो प्रसाद मंदिर से नही बेचने वाले के घर से डायरेक्ट आता है लेकीन आस्था तो आस्था है. ट्रेन में सीट पर बैठे लोगों का जी मुंगफली खाने के लिए मचलता रहता है क्योंकी फेंकना तो उन्हे जमीन पे ही होता है. कुछ लोग चार्जिंग प्वाइंट पर कुण्डली मार के बैठे रहते हैं इसलिये फ़ोन बंद रखना होता है ताकी मनिकापुर पहुँच कर घर की घंटी बजाय़ा जा सके. खाने से परहेज रखना रहता है क्योंकी घर का खाना होता नहीं है और बाहर का खाना पेट की गुड़गुड़ बढ़ाता है. उत्तर प्रदेश में ट्रेन पहुँचते पहूँचते ट्रेन की स्पीड पर ब्रेक लग जाती है लेकिन बरदाश्त वाले गोली खाने हम लोग आस की स्पीड पर निरंतर आगे बढ़ते जाते है. लखनऊ पहूँचने पर एक काका याद दिलाते है की आठ घन्टे और लगेंगे. बाराबंकी आते आते आपके हाथ में 90 रूपये में मिलने वाला तीन टार्च होता है जो ईस उम्मिद पर खरीदा गया होता है की इनमे से एक भी टिक गया तो पैसा वसूल हो जायेगा. वो मासूमियत देखने वाली होती है. खरीददारी पेठा खरीदने से पूरी होती है तब तक कुछ लोग ट्रेन से उतर गए होते हैं. जमीन पे बैठे व्यक्ति का वनवास समाप्त होता है और बचे हूए लोग लम्बी लम्बी हांकने लगते है और घनिष्ठता बढ़ती जाती है. तभी उसमे से कुछ लोगों की बातों से जातिगत बदबू आनी शुरू हो जाती है. विभाज़न की लक्ष्मण रेखा साफ दिखाई देने लगता है क्योंकी कल्याण से सीट पर बैठ कर आए व्यक्ति की जाति पता चल जाती है. उस समय समझ नहीं आता की मुंबई की ज़िन्दगी क्या ईससे बेहतर थी. तब तक मिट्टी की महक उसे अपने तरफ खिचती है और वो सब भूल कर नरकटियागंज वाले ट्रेन की आवाज के बीच और विश्व के सबसे लंबे प्लेटफार्म पर गर्व करता हुआ घर ऐसे बढता है जैसे वो कभी मुड़ के वापिस नही आयेगा. वो भूल जाता है की प्लेटफार्म लम्बा होने से उसके ज़िन्दगी में कोई बदलाव नही होने वाला है. सबसे लम्बा प्लेटफार्म तो महज एक आकड़ा है कोई उपलब्धि नही. उसके क्षेत्र और समाज को तो अब तक उस प्लेटफार्म से दूर रखा गया है जिसका हक उसके बाप दादाओं को पहले ही मिल जाना चाहिए था और जो हक अभी तक डीलिवर नही हुआ. लेकिन घर की तंगहाली बहुत जल्द उसका भ्रम तोड़ देती है. वो एक बार फिर चल पड़ता है.

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